Friday, January 7, 2011

मेरा हमसफ़र.......


कहने को है,वो हमसफ़र मेरा
पर रास्ते मिलते नहीं हैं अपने
हम चल तो रहे हैं साथ-साथ
पर आज भी हम दूर हैं कितने
कल जो मेरे दर्द का गुबार फूटा था-
तो अंजाम वो देखा था मैंने
कि-अब तो हर कदम डर-डर कर-
रखते हैं,अपने ही हमदम की ज़िन्दगी में...
मेरे दर्द से वो होता भी है परेशान
पर हर बार वही तो-
मेरे दर्द की वजह बन जाता है
और बिना कसूर के ही वो-
मुझको सज़ा दिए जाता है
सज़ा मुझे अपनाने की,
सज़ा मुझे अपनी ज़िन्दगी में लाने की,
सज़ा मेरे करीब आने की चंद कोशिशों की.........

Sunday, December 5, 2010

काश!


काश!की हम इंसान भी पत्थर हो पाते
हर अहसास,हर जज़्बात को दूर हटा
सिर्फ और सिर्फ एक बुत से बन जाते,
पर क्या करें?आखिर हम इंसान जो ठहरे-
एक दिल और एक दिमाग जो रखते हैं ,
और इनमे ही तो सारे ख़यालात बसते हैं,
तो फिर ख़ुशी के साथ गम भी सहना होगा
आँसू पी कर,चुप भी कभी रहना होगा,
क्यूंकि-इनसे हम भाग तो न पाएंगे-
हाँ! गर भागे तो-
बस एक जिंदा लाश जरूर बन जाएंगे.........

Thursday, April 1, 2010

मौत की चाहत...


ज़िन्दगी तू मुझसे क्यों रूठती नहीं
क्यों दर्द देने में तुझे मज़ा आता है?
दम घुटता है, पल-पल मेरा सीने में
पर मौत को भी मुझपे तरस नहीं आता है,

यूँ तो टूट-टूट के खुद को समेटा है,कई बार
फिर नयी आस लिए खुद को किया भी तैयार
पर अब तो ऐसे टूटी हूँ-
कि,खुद को समेटा नहीं जाता है
बस मौत मांगती हूँ हर दुआ में
पर मौत को भी मुझपे तरस नहीं आता है,

खुद को खो दिया मैंने,क्या से क्या मैं हो गयी
आज अपना ही वजूद तलाशती हूँ, कैसी ये मेरी हालत हो गयी?
जिन आँखों से थी नमी दूर रही
उनका ही अश्कों से जुड़ गया नाता है
अब तो बस मौत ही मेरी आखरी हसरत है
पर उसको भी मुझपे तरस नहीं आता है.....

Saturday, June 27, 2009

क्यूँ?

क्यूँ दिल पर जमी धुंध छटती नहीं?
क्यूँ दिल पर रखा बोझ घटता नहीं?
क्यूँ दिल तरसता रहता है,सुकून को?
क्यूँ उलझनों का ताँता हटता नहीं?

चाहतें रखती हूँ,दिल में कितनी ही
हौंसले भी अपने बुलंद रखती हूँ
पर फिर भी न जाने क्यूँ?
उन्हीं चाहतों से घबराती हूँ
हौंसले बढ़ाकर उन्हें खुद ही गिराती हूँ
डर समा जाता है,न जाने कैसा?
उसी डर से भागना मैं चाहती हूँ

क्यूँ लगता है,कोई मुझे समझता नहीं
क्यों कोई मुझसे अपनापन रखता नहीं?
क्यूँ पत्थर दिल सब समझते हैं मुझे?
क्यूँ मेरे आँसू कोई देखता नहीं?

Wednesday, April 8, 2009

आवाम की चाहत

आवाम चाहती है, ऐसी सरकार
दे सके जो देश को मजबूत आधार
जिसकी योजनाए कागज़ी न हों
वो सब सच में हों साकार
जो गर मिटा न सके पर-
कम तो कर सके भ्रष्टचार
सड़क पानी बिजली की सुविधा के साथ
जो उपलब्ध करा सके बेहतर रोजगार
जो लड़ सके आतंकवाद से
दिला सके सुरक्षा का विश्वास
इनमे से आधी उम्मीदें भी जो हों पूरी
तो मान लो हो गए कुछ सपने साकार

Thursday, January 1, 2009

कुछ कतरे खुशियों के....


क्यों ग़म ही ग़म भर दिए हैं तूने-
मेरी इतनी सी झोली में
अब कुछ कतरे खुशियों के भी तू-
डाल दे मेरी झोली में
कब तक दिल पर पत्थर रख के
यूँ दर-दर की ठोकर खाऊं
क्या ग़म और रुसवाइयों के थपेड़ों से-
लड़ते-लड़ते ही मर जाऊं
जब चोट लगी हो गहरी-
तो फिर चहक कहाँ से हो बोली में
अब कुछ कतरे खुशियों के भी तू-
डाल दे मेरी झोली में
कब तक टूटी आसों को थामें-
दिन फिरने की राह तकू
जब तू ही न समझे हालत मेरी-
तो अब किससे फरियाद करूँ ?
स्याह हो गयी ज़िन्दगी से-
फीके लगते सब रंग होली के
अब कुछ कतरे खुशियों के भी तू-
डाल दे मेरी झोली में
क्या मेरी किस्मत में भी कभी-
आयेंगे दिन हँसी-ठिठोली के?
अब कुछ कतरे खुशियों के भी तू-
डाल दे मेरी झोली में.

Friday, November 7, 2008

ये कैसी चाहत.....?

क्यों चाहते हो उसको-
जिसे तुम्हारे प्यार से सरोकार नहीं
क्यों देखते हो ख़्वाब ऐसे-
जो हो न सकेंगे साकार कभी,

ऐसा करने से आखिर क्या होगा-
बस दर्द ही तुम्हे हासिल होगा
जिसके हर ग़म को अपना मानते हो तुम-
क्या वो कभी तुम्हारी खुशियों में भी शामिल होगा?

क्यों जान कर भी अंजान बनते हो तुम?
जिसकी मंजिल ही नहीं,वही राह क्यों चुनते हो तुम?
जबकि खुशियों के फूल मिल सकते हैं तुम्हें-
फिर भी क्यों ग़म के काँटे चुनते हो तुम?

ग़र करनी है,ज़िन्दगी की मुश्किलें आसान-
तो भूल जाओ उसे
और ज़िन्दगी में जो जैसे मिले-
वैसे ही अपना लो उसे,

क्यूकि जिनके दिल ही नहीं-
उनपे प्यार का क्या होगा असर?
पत्थरों की इस दुनिया में-
जज्बातों की होती नहीं कदर
और तभी तो ख़वाब हकीकत से टकरा कर-
अक्सर जाते हैं बिखर ...............